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धर्म और अध्यात्म अपने स्वरुप व ईश्वर से साक्षात्कार करने के हेतु हैं

Kavita
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धर्म और अध्यात्म बहुधा हम इन बड़े शब्दों के पीछे के सरल मतलब को नहीं समझ पाते।
और अगर समझते हैं तो उन पर चलने के पथ को इतना कठिन समझते हैं की चलना ही नहीं चाहते।
आज के हमारे इस भौतिकतावादी युग में धर्म की पहचान महज़ हिन्दू ,मुस्लिम सिख इसाई जैन
बौद्ध या अन्य सम्प्रदायों तक ही सिमट कर रह गयी है । वैसे मैं इसे भी ग़लत नहीं मानता बशर्ते
आदमी धर्म के अर्थ के अनुरूप चले या जो भी उसके धर्मग्रंथों का निचोड़ है उसे ऐसा ग्रहण करे
की जीवन में उतारे। जीवन में धारण करने को ही धर्म कहा जाता है जहाँ तक शाब्दिक अर्थ का सवाल है।
और धारण करने के पश्चात ही व्यक्ति जो अनुभव करता है और निरंतर अपनी साधना पथ पर चलते हुए इश्वर से साक्षात्कार करता है तभी उसका जीवन सार्थक होता है सफल होता है।

हम ये कह सकते हैं की जितने भी मज़हब हैं ये उस एक परमात्मा रुपी मंजिल तक जाने के रास्ते हैं इसलिए हम किसी भी रास्ते से चलें ये उतना मायने नहीं रखता जितना हम उस मार्ग पर सही से चल रहे हैं या नहीं ।
परमात्मा बहुत ही कृपालु है उसने निश्चित ही उस तक पहुँचने वाले हर माध्यम में अपनी शक्ति दी है । और आज हम ये अच्छी तरह देख सकते हैं की अलग अलग मज़हब के कई लोग उस एक परमात्मा तक पहुंचें हैं और हम ये देखेंगे की जो भी व्यक्ति जिस भी मज़हब से उस तक पहुँचने में कामयाब हुए हैं उनकी वाणी में बहुत सच्चाई रहती है क्यूंकि वो जो भी बोलते हैं उन्होंने उसे अनुभव किया हुआ होता है इसलिए उन्हें प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं पड़ती उनके अनुभव उनके विचार सुनते ही हम सर झुका लेते हैं क्यूंकि सच सूर्य की तरह तेजवान होता है । इसलिए हमे साधन से ज्यादा साधना को महत्व देना चाहिए । परन्तु चूँकि आज अनुभव बाटने वाले या बताने वाले लोग कम हैं तो हमे ऐसे पीर फ़कीर सन्यासी या गुरु बहुत कम मिलते हैं इसलिए आज का इंसान मंजिल से ज्यादा रास्तों में ही भटकता नज़र आता है और मैं ये भी मानता हूँ की कुछ को छोड़ दें तो समाज में धर्म और मज़हब के नाम पर पैसा बनाने वालों की तादाद ज्यादा है। परन्तु ऐसी आलोचना के वक़्त हमे हमेशा ऐसे संतों की भी बात ज़रूर करनी चाहिए जिन्होंने मानव मात्र के कल्याण के लिए अपना जीवन अर्पित किया जिन्होंने सदगुरू बनकर जाने कितनो को अंधेरों से निकला और सच्ची आत्मिक रौशनी का भान कराया कहा भी गया है

गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागु पाँव
बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताये

इसलिए हमारी मानसिक ताकत भटकने या भटकाने की जगह सच्चे मन से प्रभु प्राप्ति की होनी चाहिए और उन तक पहुँचाने वाले गुरु भले वो आपका विवेक हो,कोई व्यक्ति विशेष हो सदग्रंथ हो या कोई देवता ओ या अंतर्प्रेरना हो के प्रति सदा सम्मान भाव रहना चाहिए जो की वैसे भी अपने आप ही उभरता है

मेरे अभी तक के थोड़े अनुभव के आधार पर मैं धर्म को अपरिछिन्नता और अनुभव के साथ jodta हूँ अथार्त हमे परिछिन्नता यानी संकीर्ण विचारधारा से बचना चाहिए और अधिक से अधिक अध्ययन करके अपने अनुभव में उतारना चाहिए। हम सभी ये जानते हैं की प्रातास्मरनीय स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने तो कई धर्मों (हिन्दू मुस्लिम इसाई ) के रास्ते से इश्वर तक पहुँच के दिखाया इसलिए अपरिछिन्नाता का बहुत महत्व है परन्तु मैं ये भी कहूँगा की जिसे अपने साधन में आनंद मिलने लगे उसे उस साधना को अपनाकर आगे बढ़ना चाहिए आनंद उठाना चाहिए ।
वैसे अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ स्वयं का अध्ययन(आत्म अध्ययन है और गीता में श्री कृष्ण ने साफ़ उद्घोषित किया है ”अक्षरं ब्रह्म परमं, स्वभावों अध्यात्म उच्यते – परम अक्षर अर्थात कभी भी नष्ट न होने वाला तत्व ब्रह्म है और प्रत्येक वस्तु का अपना मूलभाव (स्वभाव) अध्यात्म है।
हम ये जानना अत्यंत आवश्यक है की हमारा उद्देश्य मात्र अपने स्वरुप को जानना है और हमारा स्वरुप शान्ति है आनंद है क्यूंकि हम इश्वर के अंश हैं इसलिए हमारी प्रकृति स्वाभाविक ही उस तक जाने की है। हमे सिर्फ असत का त्याग करना है और सत को समझना है हमने जो संसार, शरीर, धन, मान इन सबमे अपनी आसक्ति जोड़ राखी है और ये ही जीवन के सार तत्त्व है ऐसा समझ रखा है बस इस अज्ञान को हटाना है ज्ञान अपने आप सर्वत्र छा जायेगा हमे सिर्फ अपने स्वरुप को समझना है और ईश्वर में अपने आपको समर्पित रखना है । बस इसी ज्ञान को जाग्रत रखकर हमे अपने सांसारिक कर्म करने चाहिए ।

दोस्तों, मैं कुछ और पोस्ट्स का यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा जिनसे हमे अपने विचारों रुपी अंकुर के लिए और उचित व और उत्तम सामग्री मिल सकती है

http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/29981226.cms

रामचरित मानस में लिखा है कि ‘ बिन सत्संग विवेक न होई! ‘ मनुष्य का विवेक गुरु बनाने से नहीं बढ़ता , वह बढ़ता है सत्संग से- ऐसे व्यक्ति के साथ से , जिसकी वाणी से अपना उद्धार हो , जिसके आचरण से हमें शिक्षा मिले , जिसके संग यह अंत:करण शुद्ध हो जाए। ऐसा , जिसके साथ हो , वही हमारा गुरु है , चाहे ऐसे कितने ही लोग हमें मिल जाएं। श्रीमद्भागवत में प्रसंग आता है कि दत्तात्रेय ने 24 गुरु बनाए और जीते-जी मुक्त हो गए। मनुष्य किसी से शिक्षा ले सकता है। दत्तात्रेय जहां-जहां गए , सीख लेते गए। उनके गुरु थे- पृथ्वी , हवा , आकाश , जल , अग्नि , चंदमा , सूर्य , कबूतर , अजगर , समुद्र , पतंगा , शहद की मक्खी , हाथी , शहद निकालने वाला , हिरन , मछली , वेश्या , चील और बालक। सब उनके गुरु थे। इन सबसे उन्होंने कुछ न कुछ सीखा। हम नहीं सीखते , तो कमी कहीं हमारी लगन में ही है। हम अपने गुरु को नहीं पहचान पाते , हम नहीं समझ पाते कि किसका संग सत्संग है।
जब शिष्य को ज्ञान हो जाए , तो उसके मार्गदर्शक का नाम गुरु होता है। लेकिन अगर शिष्य को ज्ञान न हो तब ? तब सीख देने वाला , उपदेश देने वाला कतई गुरु नहीं कहलाएगा। अगर शिष्य ने किसी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया , पर उसके बाद न तो उसमें कोई भीतरी परिवर्तन हुआ , न वह ईश्वर के रास्ते चला , बल्कि अटक गया गुरु की महिमा बखान करने में , यह जतलाने में कि उसके गुरु के बराबर न कोई था , न होगा , तो ऐसे गुरु को गुरु का दर्जा देना अनुचित होगा। गुरु की जय-जयकार तभी होती है जब वह अपने साथ गोविन्द ले आए , वरना गुरु-शिष्य का रिश्ता ठगाई है। केवल गुरु बन जाने से बात नहीं बनती। शिष्य का उद्धार तभी हो सकता है जब गुरु उसे गोविन्द के दर्शन करा दे। जो अपने शिष्य से मान-सम्मान चाहता है , दान-दक्षिणा चाहता है , नाम चाहता है , वह अपना कल्याण कर रहा है , शिष्य का नहीं।
इसमें शिष्य की इच्छा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। कबीर ने रामानन्द से जबरदस्ती ‘ राम ‘ नाम का मंत्र ले लिया। अंधेरे में उनकी राह पर लेट गए , स्वामी जी का पैर पड़ा तो वे बोल उठे ‘ राम-राम! ‘ बस कबीर ने उन्हें गुरु स्वीकार कर लिया और लग गए साधना में। दोणाचार्य ने एकलव्य को शिष्य रूप में स्वीकार नहीं किया , तो उसने दोणाचार्य की प्रतिमा बनाई और उसे ही गुरु मानकर शुरू कर दिया धनुविर्द्या का अभ्यास।
यह भी जरूरी नहीं कि गुरु उसी को बनाया जाए जो वर्तमान हो , जीवित हो। शुकदेव हजारों वर्ष पहले हुए थे , पर चरणदास ने उनसे दीक्षा ली। बहुत से लोग आज रमण महर्षि को अपना गुरु बनाते हैं , अखंडानंद को , रामकृष्ण परमहंस को अपना इष्ट मानते हैं। साईं बाबा को या उडि़या बाबा को अपना गुरु कहते हैं। गुरु शरीर नहीं , देह नहीं , गुरु तो शब्द है , वचन है। इसीलिए गुरु कभी मरता नहीं।
सच्चा गुरु माँ की तरह अपना सर्वस्व भूल कर अपने शिष्य का कल्याण चाहता है। सच्चा गुरु शिष्य को अपने में नहीं , वरन् भगवान में लगाता है। जो बुला-बुला कर शिष्यों को गुरु की महिमा बताए , वह तो इच्छा से भरा है कि कैसे उसके ज्यादा से ज्यादा शिष्य हों। वह शिष्य के कल्याण के लिए नहीं , अपने प्रचार के लिए लालायित है। जब यह समझ न आए कि कौन असली गुरु है , कौन नकली , तब जबरदस्ती गुरु नहीं बना लेना चाहिए। बनावटी गुरु से कल्याण नहीं होता।
कुछ लोग गुरु इसलिए ढूंढते हैं कि उन्हें अपने पर विश्वास नहीं। स्वयं कुछ नहीं कर नहीं सकते , चलो गुरु ही कर देंगे। इस भाव से अपनी साधना में ढीलापन आ जाता है। यही नहीं , हम अपने गुरु की महिमा का गान और दूसरे के गुरु का अपमान करने लगते हैं। चले थे भलाई की राह पर , मगर अपना ली बुराइयां। लेकिन ईश्वर की राह पर चलने के लिए जहां से भी सत् विचार मिलें , ग्रहण कर लेने चाहिए। परम ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपनी मेहनत स्वयं करनी होगी। रमण महर्षि को बिना गुरु के आत्म साक्षात्कार प्राप्त हुआ , गुरु नानक ने ईश्वर के स्वरूप को बिना गुरु के ही प्राप्त कर लिया। इन्होंने अपने विवेक को अपना सत् गुरु बनाया। ईश्वर हर एक को विवेक रूपी गुरु देते हैं। विवेक द्वारा हर व्यक्ति को सत् , असत् , कर्तव्य-अकर्तव्य , ठीक-गलत की जानकारी हो जाती है। आवश्यकता है उस विवेक को पहचानने और उसके हिसाब से चलने की। सत्संग से यही विवेक जागता है।

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http://oshovani.blogspot.com/2008/05/blog-post_21.html

कोई धर्म के संबंध में पूछ रहा था। उससे मैंने कहा, ‘धर्म का संबंध इससे नहीं है कि आप उसमें विश्वास करते हैं या नहीं करते। वह आपका विश्वास नहीं, आपका श्वास-प्रश्वास हो, तो ही सार्थक है। वह तो कुछ है- जो आप करते हैं या नहीं करते हैं- जो आप होते हैं, या नहीं होते हैं। धर्म कर्म है वक्तव्य नहीं।’
और धर्म कर्म तभी होता है, जब वह आत्मा बन गया हो। जो आप करते हें, वह आप पहले हो गया होते हें। सुवास देने के पहले फूल बन जाना आवश्यक है। फूलों की खेती की भांति आत्मा की खेती भी करनी होती है। और, आत्मा में फूलों को जगाने के लिए पर्वतों पर जाना आवश्यक नहीं है। वे तो जहां आप हैं, वहीं उगाये जा सकते हैं। स्वयं के अतिरिक्त एकांत में ही पर्वत हैं और अरण्य हैं।
यह सत्य है कि पूर्ण एकांत में ही सत्य और सौंदर्य के दर्शन होते हैं। और जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह उन्हें मिलता है, जो अकेले होने का साहस रखते हैं। जीवन के निगूढ़ रहस्य एकांत में ही अपने द्वार खोलते हैं। और आत्मा प्रकाश को और प्रेम को उपलब्ध होती है। और जब सब शांत और एकांत होता है, तभी वे बीज अंकुर बनते हैं, जो हमारे समस्त आनंद को अपने में छिपाये हमारे व्यक्तित्व की भूमि में दबे पड़े हैं। वह वृद्धि, जो भीतर से बाहर की ओर होती है, एकांत में ही होती है। और स्मरण रहे कि सत्य-वृद्धि भीतर से बाहर की ओर होती है। झूठे फूल ऊपर से थोपे जा सकते हैं, पर असली फूल तो भीतर से ही आते हैं।

इस आंतरिक वृद्धि के लिए पर्वत और अरण्य में जाना आवश्यक नहीं है, पर पर्वत और अरण्य में होना अवश्य आवश्यक है। वहां होने का मार्ग प्रत्येक के ही भीतर है। दिन और रात्रि की व्यस्त दौड़ में थोड़े क्षण निकालें और अपने स्थान और समय को, और उससे उत्पन्न अपने तथाकथित व्यक्तित्व और ‘मैं’ को भूल जाएं। जो भी चित्त में आये, उसे जानें कि यह मैं नहीं हूं, और उसे बाहर फेंक दें। सब छोड़ दें- प्रत्येक चीज, अपना नाम, अपना देश, अपना परिवार-सब स्मृति से मिट जाने दें और कोरे कागज की तरह हो रहें। यही मार्ग आंतरिक एकांत और निर्जन का मार्ग है। इससे ही अंतत: आंतरिक संन्यास फलित होता है।

चित्त जब सब पकड़ छोड़ देता है- सब नाम-रूप के बंधन तोड़ देता है, तब वही आपमें शेष रह जाता है, जो आपका वास्तविक होना है। उस ज्ञान में ही धर्म है के फूल लगते हैं और जीवन परमात्मा की सुवास से भरता है।

इन थोड़े क्षणों में जो जाना जाता है- जो शांति और सौंदर्य और जो सत्य- वह आपको एक ही साथ दो तलों पर जीने की शक्ति दे देता है। फिर कुछ बांधता नहीं है और जीवन मुक्त हो जाता है। जल में होकर भी फिर जल छूता नहीं है। इस अनुभूति में ही जीवन की सिद्धि है और धर्म की उपलब्धि है।

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