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बेशरम सरकार – संवेदनहीनता,नपुंसकता या नंगापन

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टीम अन्ना के अनशन का आँठवा दिन और सरकार को इससे कोई सरोकार नहीं ।

ये कैसी सरकार जो एक तरफ इतने डर में है की राज्यों की बिजली ही कटवा दे रही है और एक तरफ
इतनी संवेदनशीलता नहीं जुटा पा रही है की देश हित के लिए अनशन पर बैठने वाले लोगों को सम्मान दे सके उनका हालचाल ले सके उनसे संवाद स्थापित कर सके ।

ये देश की बदकिस्मती है की ऐसी सरकार देश ने पायी है जो पकडे गए आतंकवादियों को तो सुरक्षा प्रदान करती है और रामलीला मैदान पर सो रहे निहत्थे लोगों पर पुलिस बल का प्रयोग करवाती है ।
ये कैसी सरकार है जो घोटाले पर घोटाले कर रही है और घोटाले करने वाले मंत्रियों को और बड़े पद दे रही है ।
सत्ता विपक्ष भी मूक बने हुई है ।
मीडिया अनशन की खबर दिखाए न दिखाए इसी विचार में है ।
पत्रकारिता भी सवालों के घेरे में हैं और सिर्फ इस अनशन से ही नहीं बहुत दिनों से क्यूंकि चाहे हम टीवी पर देखें या अखबार पढ़ें कहीं भी कोई खबर जल्दी ऐसी नहीं दिखाई पड़ती जो तथ्यों को दिखाने के साथ उनका सही आंकलन करे परिणाम की राह दिखाए ।
उससे भी बड़े दुःख की बात ये है की अधिकांशतः पत्रकारिता ग़लत तथ्यों,व्यर्थ मुद्दों और निरर्थक तर्कों तक सिमट के रह गयी है क्यूंकि सच्चाई से ज्यादा प्राथमिकता यहाँ भी धन,मान,बल,सामर्थ्य ही हो गया है शायद ।
आज न्यूज़ टीवी चैनेल्स जैसे जनता के साथ भद्दा मज़ाक करते हैं क्यूंकि ये खुद तो कारपोरेट हाउस द्वारा संचालित होते है,सरकार से डरे रहते
हैं । बस एक व्यवसाय की भांति समाचार दिखाते हैं,चर्चा करते हैं इनका रुझान टी आर पी पर ज्यादा होता है और खबर बस इस तरह बताएँगे,दिखाएँगे जिससे इनकी दाल रोटी पर संकट न आये ।

खैर दोषी तो सरकार ही है क्यूंकि भ्रष्टाचार वहीँ सबसे ज्यादा हो रहा है और इसीलिए न तो सरकार भ्रष्टाचार के किसी आन्दोलन में दिलचस्पी लेती है न ही मीडिया को पूरी तरह स्वतंत्र से अपना काम करने देती है ।

परन्तु ऐसा कब तक चलेगा ?
क्या भारत सरकार स्वयं भी गुलाम या गुलामी पसंद हो चुकी है ?
क्या सरकार सिर्फ घोटाले करने के लिए ही रह गयी है?
क्या लोकतंत्र बहाल रखने में सरकार स्वयं ही एक रुकावट बन जाती है?
क्या देश के झंडे के प्रति नेताओं में सम्मान नहीं रह गया ?
क्या देश हित में बात करना भी एक गुनाह सा हो गया है ?
क्या समाज हित में बात करने वालों को प्रताड़ना और सजा मिलनी चाहिए ?
क्या राजनीति का मतलब सिर्फ पैसे बनाना रह गया है ?
क्या ऐसे नेताओं के अन्दर भगवान् का भी खौफ ख़त्म हो गया है ?
क्या सरकार ये नहीं मानती की वो जनता की वजह से है और जनता के प्रति जवाबदेह है ?
क्या इस तरह से किसी बड़े आन्दोलन को रोकके सरकार लोकतंत्र का हित कर रही है ?
क्या समाज में नैतिक मूल्यों के पतन के प्रति सरकार भी ज़िम्मेदार नहीं है ?
क्या राजनीति में साफ़ सुथरे व्यक्तित्व को हरगिज़ नहीं आना चाहिए ?
क्या जनलोकपाल के आने से भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं कसेगी ?
क्या कोई मंत्री ऐसा हुआ है जो अपने पूरे घोटाले की रकम या काला धन अपने जीवन में उपयोग कर पाया ?
क्या समाज को देश व समाज के हित से जुड़े आंदोलनों में बढ़ चढ़ के भाग नहीं लेना चाहिए ?
क्या एक इनकम टैक्स जोइंट कमिश्नर(अरविन्द केजरीवाल) अपने पद से इस्तीफा देके समाज सुधार आन्दोलन पैसे के लिए करने उतरेगा ?
क्या ऐसे देशभक्तों के प्रति देश व समाज का कोई दायित्व नहीं बनता ?
क्या देश व समाज सुधार आन्दोलन से पूरा देश साथ नहीं आता ?
क्या ऐसे आन्दोलन में भी राजनीति होनी चाहिए ?
क्या ऐसे आन्दोलन के नाकाम होने से लोकतंत्र के ऊपर प्रश्नचिन्ह नहीं लगता ?

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